" ताऊ ! इस शतरंज के खेल में इक बात मुझे आज तक समझ में ना आई ? " " क्या हुआ भतीजे तुझे मेरी चालों से डर लगने लगा क्या ? " ताऊ ने खटिया पर बैठे बैठे अपनी घनी मूछों को ताव दिया ।
" नही ऐसी कोई बात नहीं है बस यूँही एक विचार आया कि घोडा ढाई घर चले हैं,ऊंट तिरछा , हाथी सीधा , वजीर चारों ओर तो यह बादशाह अपनी जगह एक खाने से दूसरे खाने क्यों नाचे है?"
" अरे पगला गया है क्या खेल के भी कुछ नियम होते हैं । फिर राजा तो राजा होवे है उसका काम तो सबकी पीठ पीछे युद्ध का संचालन करना है । नेतृत्व बोलें हैं बड़े बुजुर्ग इसको"
" पर ताऊ हमने तो सुना है कि बादशाह लोग तो अपने को युध्द में आगे कर युद्ध में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे?"
"वह बीते दिनों की बातें थी बेटा आजकल तो सिर्फ दूर से ही फैसले उल्टा पुल्टा करता है।"
"तो क्या ताऊ तू भी कहीं अपने को बादशाह तो ना समझ बैठा है।"
" कैसी बात कर रहा है तू छोरा ? "
"सच्ची बात कर रहा हूँ क्या तू अपना पाप मेरे गले में ना बाँधना चाहे है। शहर में रहता हूँ तो क्या ? गाँव की हवा मेरे को भी छूती है। ले बचा अपना राजा यह शह और यह मात।"
पसीने से तरबतर ताऊ अंगोछे से अपना मुँह छुपाये बैठा था ।
( पंकज जोशी ) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ०प्र०
३०/१०/२०१५
बेहतरीन लघुकथा है ये। बधाई प्रेषित है आदरणीय पंकज जी
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीया कांता दी । सादर
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