Monday 28 September 2015

विधर्मी खून

हैजा का प्रकोप ऐसा फैला  कि  पूरा गांव उसकी चपेट में आ गया । शन्नो ताई भी उससे अछूती ना रही । शन्नो ताई को अफसोस था उस दिन पर जब रमा आई थी जागरूकता के लिये  और उसने , 

" ए रमा ! चल हट यहां से  ! भाग यहां से  नासपीटी फ़ौज को ले कर के ! हमारे कुंए को हाथ भी ना लगाना , हमे कोई दवा-ववा नहीं डलवानी  तेरे से। " 

" पर ताई ! अगर कुँए का पानी साफ़ नहीं किया गया तो गांव में हैजा फैलने का डर है । "

" मुझे सिखाती है करमजली ! शहर जा कर चार अक्षर क्या पढ़ आई  मुझको अंग्रेजी सिखाती है ।  "

" बड़ी आई डाक्टरनी कहीँ की  मुझको अक्ल सिखाने आई है । उस समय तेरी अक्ल किधर चरने चली गई थी जब तूने उस विधर्मी के साथ मुँह काला करके हमारी नाक कटा कर चली गई थी । हमको बुढापे में सिखाएगी जाति पात , धर्म भेद ? "
 "अरे ओ सुखिया दो लठैत बिठा दे इहाँ पर और देखो कउनो हमार पानी ना छुएं । " 
आज उस दिन को याद करते हुए वो आत्मग्लानि की अनुभूति कर रही थी । 

तभी  वार्ड में रमा उनका चेकअप करते हुई बोली  "ताई अब तुम बिलकुल ठीक हो तुम अपने घर जा सकती हो लेकिन तुमको गाँव में अब कौन अपनायेगा ? "  तुम  तो अशुद्ध हो गईं जो खून तुम्हारी रगो में बह रहा है वह तो तुम्हारे विधर्मी दामाद का है । अब तो तुम्हे मेरे साथ ही रहना पड़ेगा। " रमा ने चुटकी लेते हुए कहा ।
" नासपीटी कहीं की मुझसे ठिठोली करती है ! " ताई ने प्यार भरी चपत उसके गाल पर मारते हुए कहा ।

पंकज जोशी  ( सर्वाधिकार सुरक्षित )

लखनऊ । उ०प्र०

28/09/2015

Sunday 13 September 2015

वक़्त     
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दरवाजे पर घण्टी बजा कर जैसे ही  पार्सल वह अपने झोले से निकालने ही वाला था कि सामने उसने रेखा को खड़ा पाया । उसकी आँखों के सामने बीता कल घूम गया था । अरे यह तो वही पगली है जिसे सारे बच्चे पाठ शाला में चिढ़ाया करते थे ।

" आज यह सेठानी बन गई वाह री तकदीर ।

अनजान  बन चुपचाप उसने विदेश से आया पैकेट  निकाला , कागज में हस्ताक्षर करवा कर वह जैसे ही चलने को हुआ । उसके कानों को इक कोमल आवाज सुनाई पड़ी । " एक मिनट भैय्या जरा रुकिए तो सही मैं अभी आती हूँ !  सेठानी ने हाथ से उसे इशारा करते हुए कहा और अंदर चली गई "

थोड़ी देर में वह हाथ में  एक छोटा सा पैकेट लेकर आई " यह भाभी जी को दे  दीजेगा , और कहियेगा यह उनकी पगली ननद ने भेजा है । 

" आज उसे यह शहर पराया नहीं लग रहा था । "

( पंकज जोशी ) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ०प्र०
13/09/2015

Thursday 3 September 2015

उर्मिला की व्यथा 
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आज राज्य की सड़के सूनी हो पड़ी हैं , तीन सधवायें को अकारण ही वैधव्य को प्राप्त होना पड़ा , अनजाने में किया एक ऐसा प्रण जिसके फलस्वरूप पुत्र विछोह का दंश महाराज सहन ना कर  सके और प्राण त्याग दिये । प्रजा बिना राजा के अनाथ हो गई ।

पर महल के कोने में बैठी उस फूल सी कोमल स्त्री का क्या दोष ? जो उसको सधवा होते हुए भी श्रृंगार रहित हो , भगवा वस्त्र धारण करना पड़ा।

रानी से उसका कुम्हलाया चेहरा देखा ना गया वह उसको गले लगाते हुए बोली " यह तो विधि का विधान है जो टाला नहीं जा सकता "

कांधे में सिर रखी कन्या के सब्र का बाँध टूट चुका था " माँ ! यह कैसी वचनों को निभाने की कुल रीति है  जिसका वनवास मुझे अगले चौदह साल तक एक विधवा की तरह निभाना होगा । "

( पंकज जोशी ) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ.प्र
03/09/2015