उसने गरीबी देखी थी। बूढ़े माँ-बापू को अपनी बाहों में दम तोड़ते देखा था उसने कसम खा ली थी कि अब वह जीवन में कभी पलट कर नहीं देखेगा।
"अब आत्मा की भी नहीं सुनूंगा, चाहे कुछ भी हो जाये समय को पलट दूँगा , पैसे में बड़ी ताकत होती है तो यही सही, अब यह लक्ष्मी मेरी होगी" यह बात उसके दिमाग में घर कर चुकी थी।
समय ने भी अपना पलटा खाया आज वह एक कम्पनी का मालिक बन चुका था। शहर में उसकी इज्जत थी।
सब पा लिया लेकिन आत्मा...! उम्र भर उससे दूर भागता रहा पर वह थी कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ रही थी।
"रोज रोज मैं तुम्हारी बकवास सुन-सुन के थक गया हूँ, भाग जाओ यहाँ से, अपना यह लेक्चर नाकाम लोगो को जाकर सुनाओ मुझे नहीं, देखो दुनिया की सारी खुशियाँ आज मेरे कदम चूम रहीं है!" वह चिल्लाया.
"मैं अपने धर्म से विमुख नही हो सकती, तुम्हे छोड़ कर नहीं जा सकती, जिन अभावों को तुम दूर भगा देना चाहते थे, क्या वास्तव में उसे भगा पाये? क्या तुम्हारी ज़िंदगी में सुकून है?" वह पसीने-पसीने हो उठा.
वह लगातार बोलती जा रही थी,"तुम्हारी अपूर्ण लालसायें ही तुम्हारी अशांति का कारण हैं जो पूरा होने का नाम नहीं लेती, ना जाने कितनों की छाती को रौंद कर तुम अपने को स्वयम्भू समझ बैठे हो, क्या डॉली भी तुम्हारी भूख का शिकार होगी?"
"हाँ, मेरे रस्ते जो आयेगा सबको लील जाउंगा!"
"उस बेचारी का कसूर क्या है, बस इतना ही कि उसने तुमको चाहा है तुमसे प्यार किया है"
" प्यार किया तो क्या!"
"बेचारी बड़ी भोली है कम से कम उसको तो बख्श दो।"
"नहीं, मुझे सिर्फ जितना है , प्यार हारना सीखाती है ,मैं किसी हाल में हार नहीं सकता हूँ, तुम कौन होती हो मुझसे ऐसे सवाल करने वाली?"
"सुना नही तुमने सुनील, मैं अभी जिन्दा हूँ मैं तुम्हारी आत्मा हूँ।"
"नहीं नहीं तुम कैसे जिन्दा हो सकती हो तुम्हें तो मैंने बरसों पहले ही मार दिया था तुमको मार कर ही तो मैंने सफलता का स्वाद चखा था।"
"काश, तुम मुझे मार पाते और समझ पाते जिसे तुम सफलता मान रहे हो वह तुम्हारी विफलता है।"
उसने क्रोध में बोतल उठाई और दीवार पर दे मारी । हारा हुआ खिलाड़ी कांच के टुकड़े में हर जगह दिख रहा था ।
(पंकज जोशी) सर्वाधिकार सुरक्षित
लखनऊ । उ०प्र०
०९/०५/२०१७
"अब आत्मा की भी नहीं सुनूंगा, चाहे कुछ भी हो जाये समय को पलट दूँगा , पैसे में बड़ी ताकत होती है तो यही सही, अब यह लक्ष्मी मेरी होगी" यह बात उसके दिमाग में घर कर चुकी थी।
समय ने भी अपना पलटा खाया आज वह एक कम्पनी का मालिक बन चुका था। शहर में उसकी इज्जत थी।
सब पा लिया लेकिन आत्मा...! उम्र भर उससे दूर भागता रहा पर वह थी कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ रही थी।
"रोज रोज मैं तुम्हारी बकवास सुन-सुन के थक गया हूँ, भाग जाओ यहाँ से, अपना यह लेक्चर नाकाम लोगो को जाकर सुनाओ मुझे नहीं, देखो दुनिया की सारी खुशियाँ आज मेरे कदम चूम रहीं है!" वह चिल्लाया.
"मैं अपने धर्म से विमुख नही हो सकती, तुम्हे छोड़ कर नहीं जा सकती, जिन अभावों को तुम दूर भगा देना चाहते थे, क्या वास्तव में उसे भगा पाये? क्या तुम्हारी ज़िंदगी में सुकून है?" वह पसीने-पसीने हो उठा.
वह लगातार बोलती जा रही थी,"तुम्हारी अपूर्ण लालसायें ही तुम्हारी अशांति का कारण हैं जो पूरा होने का नाम नहीं लेती, ना जाने कितनों की छाती को रौंद कर तुम अपने को स्वयम्भू समझ बैठे हो, क्या डॉली भी तुम्हारी भूख का शिकार होगी?"
"हाँ, मेरे रस्ते जो आयेगा सबको लील जाउंगा!"
"उस बेचारी का कसूर क्या है, बस इतना ही कि उसने तुमको चाहा है तुमसे प्यार किया है"
" प्यार किया तो क्या!"
"बेचारी बड़ी भोली है कम से कम उसको तो बख्श दो।"
"नहीं, मुझे सिर्फ जितना है , प्यार हारना सीखाती है ,मैं किसी हाल में हार नहीं सकता हूँ, तुम कौन होती हो मुझसे ऐसे सवाल करने वाली?"
"सुना नही तुमने सुनील, मैं अभी जिन्दा हूँ मैं तुम्हारी आत्मा हूँ।"
"नहीं नहीं तुम कैसे जिन्दा हो सकती हो तुम्हें तो मैंने बरसों पहले ही मार दिया था तुमको मार कर ही तो मैंने सफलता का स्वाद चखा था।"
"काश, तुम मुझे मार पाते और समझ पाते जिसे तुम सफलता मान रहे हो वह तुम्हारी विफलता है।"
उसने क्रोध में बोतल उठाई और दीवार पर दे मारी । हारा हुआ खिलाड़ी कांच के टुकड़े में हर जगह दिख रहा था ।
(पंकज जोशी) सर्वाधिकार सुरक्षित
लखनऊ । उ०प्र०
०९/०५/२०१७
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