Tuesday 3 January 2017

ढहते किले

शहर की कॉस्मोपोलिटन ज़िन्दगी देखने की चाह व बेटी से मिलने की तड़प उनको यहाँ खींच लाई थी ।

" बेटे जी अह्ह्ह ! जी पपा मैं इधर हूँ ड्राइंग रूम में , रामलाल जी जो अभी अभी मॉर्निंग वॉक ले कर आये थे गले को ठीक करने लगे , 

जब से मैं आपके घर आया हूँ देख रहा हूँ आप लोंगो कुछ ज्यादा ही बिजी हैं । सुधीर कब आता है कब चला आता है पता ही नहीं चलता । 

बच्चे स्कूल गये ? जी , पपा जी ।
बिना देखते हुए उसने प्रत्युत्तर दिया ।

पप्पा आज सुनिधि के वहाँ किट्टी पार्टी है तो दिन का मेरा खाना तो उसके घर है आपके लिये क्या बना दूँ , एक पत्ते के ऊपर दूसरे पत्ते को टिकाते हुए वह बोली ।

कुछ भी जिसमें आपको सुविधा हो । ठीक है मैं मालती को बोल दूँगी वह आपकी मन पसंद खिचड़ी बना देगी ।

ठीक है जैसा आप उचित समझे पर यह सुबह सुबह आप क्या लेकर बैठ गईं ?

पपा जी ताश का घर बनाने की कोशिश कर रहीं हूँ  ,  इससे दिमाग फोकस होता है , पर बेटा यह सब दिन में , जब व्यक्ति फुर्सत में हो तब यह सब चलता है यह सही वक्त नहीं है । 

तभी वह उसे चिड़ाने के लिये हल्की सी हवा में फूँक मारता है । ताश की मंजिले एक एक करके जमीं दोज हो गईं ठीक वैसे ही जैसे बचपन में कोई तेज लहर उसके रेत के घर को अपने साथ बहा ले जाती थीं । 

पप्पा यह क्या किया आपने फिर मेरा घर ढहा दिया । बेटी के सिर में हाथ फेरते हुए बोले बेटे जी मैंने कुछ कहाँ किया उसकी बुनियाद ही कमजोर होगी । 

मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे " अगर नकली घर ढहाने से असली घर बचता है तो ऐसा ही सही ।"

( पंकज जोशी ) सर्वाधिकार सुरक्षित
०३/०१/२०१७
लखनऊ । उ०प्र०

No comments:

Post a Comment