Monday 3 August 2015

बेईमान रिश्ते
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मन अपनी अबाध गति से चला जा रहा था , तेज रफ़्तार से उड़ा जा रहा था एक पतंग की तरह सहसा ही पीछे से आवाज आई मेरे छोटे भाई की थी , और मैं तन्द्रा से बाहर निकला ।

" दद्दा हम पतंग उड़ाते है चरखी एक हाथ में लिए ! मैंने कहा हाँ मान लो अगर पतंग की डोर टूट गई  तो क्या करोगे ?  मैंने कहा दुबारा मांझे पर गाँठ लगा दूंगा ? फिर भी ...तो मैंने कहा जितनी बार टूटेगी उतनी बार बांधूंगा । उसके बाद ? उसने पूछा ! मैं नई डोर ले आऊंगा !

तो क्या आप को नहीं लगता कि ज़िन्दगी में हम जितनी बार लड़ते हैं तो मन में गाँठ बनती जाती है ? ऊपर से भले ही हम एक दिखें क्या रिश्तों की डोर में मन की गांठे जुड़ तो जाती है , पर वे भी क्या पतंग की डोर की तरह एक समान रहती हैं ? क्या आप उसको फैंक कर नया रिश्ता नये सिरे से जोड़ सकते हो ?

निरुत्तर मैं छत की दीवार को तांक रहा था ।

( पंकज जोशी ) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ.प्र
04/08/2015

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