देखा
- देखी
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शहर की चमक दमक दिखला कर बेवकूफ बना दिया उसने तुझे , मैं तो पहले ही कहती थी कि
श्याम की बात में मत विश्वास कर , पर तुमने एक ना सुनी ,
गाँव की अच्छी भली खेती बाड़ी को छोड़ शहर चले आये। न रहने को छत
है ना ठीक से खाना पीना , क्या काम दिलाया उसने कहता था
शहर में बढ़िया नौकरी दिलवाएगा , यह पीठ पर सीमेंट की बोरी
और सिर पर ईंटों का ढेर । बुधिया की आँखों से झरती आंसुओं की धारा मानो उसकी हँसी
उड़ा रही हो कि "दूर के ढोल सुहावने होते हैं "
(पंकज जोशी ) सर्वधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ० प्र० ।
30/03/2015
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