Wednesday 11 March 2015

लघुकथा :-  मधुशाला
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रवि एक छोटे से गाँव से दस साल पहले शहर नौकरी ढूंढने आया था । पिता जी उसके पुरोहित थे तो उसको रामायण और गीता के कुछ अंश कंठस्थ थे । और वह उनका अनुपालन भी करता आया था । पर शहर की आबोहवा उसके कट्टर धार्मिक विचारों के बीच रोड़े का कार्य कर रही थी । जितनी भी नौकरी उसे मिली तो सहकर्मियों से सही ताल मेल ना बैठा ना पाने के कारण वह छूट जाती ।

एक दिन वह निराश थक हार कर वापस गाँव जाने के लिये रेलवे स्टेशन पर अपनी गाडी आने का इंतज़ार कर रहा था , जो नियत समय से काफी लेट थी । तभी उसकी नज़र बुक स्टाल पर बच्चन जी की मधुशाला पर पड़ी उसने पुस्तक खरीदी और उसे तन्मयता से पढ़ने लगा। पुस्तक की एक लाइन उसको जँच गई " एक राह तू चला चला चल तो पा जाऐगा मधुशाला " । जो अर्थ गीता और रामायण की पंक्तिया रवि को ना समझा पाई वह उसको मधुशाला ने समझा दिया ।
रवि ने पुस्तक अपने बैग में डाली और वापस शहर की तरफ रुख कर लिया एक नई उमंग और उत्साह के साथ। आज मधुशाला सार्थक हो गई ।
(पंकज जोशी) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ०प्र०
12/03/2015


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