लघुकथा :- एकलव्य
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इस वर्ष की इंटर यूनिवर्सिटी के खेलों में
फुटबॉल में शील्ड श्यामू की बदौलत मिली थी । सुबह से उसके कोच परेशान इधर से उधर
अनमने ढंग से चहल कदमी कर रहे थे ।
कैसे
कहूँ श्यामू से कैसे कहूँ.....
शाम को प्रेक्टिस के वक़्त उन्होंने
श्यामू को किनारे बुलाया और कहा ...श्यामू तुम एक बेहतरीन फुटबॉलर हो और यह मैं
नहीं तुम्हारा खेल बोलता है। स्टेट टीम के चुनाव का समय आ गया है ।
मैं तुमसे कुछ कहना
चाहता हूँ । बोलिये गुरूजी क्या कहना चाह रहें है आप ? कुछ नहीं मंत्री जी का फोन आया था वे चाहते हैं कि टीम को चुनते वक़्त मैं
उनके लड़के रवि को तुम्हारी जगह टीम मे लूँ । तो मैं तुम्हारी राय ......कहते कहते
चुप हो गये ।
गुरु
जी जैसा आप उचित समझे अनमने ढंग से रवि ने अपना किट उठाया साईकिल मे बाँधा और घर
की ओर निकल पड़ा ।
उसी
रात एकलव्य कोच साहब के सपने में आता है । " यह क्या गुरु जी आप भी गुरु
द्रोणाचार्य की तरह एक उभरती प्रतिभा को सिर्फ इसलिए समाप्त कर देंगे कि वह मंत्री
का बेटा है , क्या खेल व शिक्षा सिर्फ राजाओं के बच्चों के लिये
हैं गरीबों का कोई अधिकार नहीं ? "
नहीं
नहीं ऐसा कतई नहीं होगा एकलव्य तुम धन्य हो तुमने तो मेरी आँखे खोल दी" अचानक
गुरु जी की आँख खुल जाती है , मन ही मन सोचते हैं क्या
यह सपना था या सच्चाई ।
अगले
दिन नोटिस बोर्ड में प्लेइंग इलेवन की टीम की लिस्ट चस्पा थी । श्यामू को टीम का
कैप्टन बनाया गया और मंत्री जी के लड़के का नाम ......
लखनऊ । उ०प्र०
10/02/2015
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