मीना आज
बेबस व लाचार थी,उसका पति जिस फैक्ट्री में कार्य करता था,पूरे छह महीने होने को आयें वह आज बंद पडी है ,फैक्ट्री
में नकली दवाईयों का निर्माण होता था,हस्पताल में कई लोंगों
की मौत होने के बाद,सरकार चैतन्य हुई और छापा पडा,आज उस फैक्ट्री का मालिक जेल की हवा खा रहा है,पर
रोज दिहाडी पर काम अबोध बालक को गोद मे लेकर काम पर
निकल पड़ती,इतफ़ाक से जिस
कोठी मे वह काम करती है वह करने वाले उन गरीब मजदूरों
का क्या कसूर ? ,उनके आश्रित परिवारों का क्या दोष है?
ऊपर से पति की शराब और जुएं की लत ने मीना को तोड़ कर रख दिया।आज बड़ी मुश्किल से उसके पड़ोस में रहने वाली सुनीता बाई ने उसे एक
कोठी मे बर्तनों को मांजने व सफाई करने की नौकरी दिलवाई।अब वह रोज सवेरे अपने
नन्हे एक ब्राह्मण पुरोहित का घर है,जब उसे इस बात का पता
चलता है तो वह घर की मालकिन से बड़ी मिन्नते करती है कि उसका भाग्य कब फिरेगा अगर
पंडित जी बता दें तो उसका भी कल्याण हो जायेगा,खैर मालकिन के
कहने पर पंडित जी उसकी हाथ की रेखायें पढ़ते हुए उससे प्रश्न करते हैं कि तेरी कभी
कुंडली वगैरह भी बनी है -तो मीना कहती है नहीं बाबू जी,'घोर
कलियुग' पंडित जी कहते हैं खैर कोई बात नहीं-तेरे भाग्य मे
राहु व केतु बैठे ऊधम मचा रहें हैं चूँकि यह विष्णु से डरते हैं ,तो तू आज से उनकी पूजा शुरू कर दे, जा जाकर भगवान्
श्री कृष्ण की मूर्ति खरीद और घर मे स्थापित कर और उन्हें रोज प्रसाद चढ़ा ,स्वंय भी खा और अपने पति व बच्चे को भी खिला,ईश्वर
ने चाहा तो सब कल्याण ही कल्याण होगा। मीना हूँ कह कर पंडित जी क़े पैर छूती है और
जैसे ही चलने के लिए उठती है तो पंडित जी टपक से पूछतें हैं मेरी दक्षिणा, वह तो मेरे पास नहीं है अभी कुछ ही रोज तो हुए है मुझे काम पर आये हुए घर
मे तो दाना पानी भी नहीं है-मीना बोली,ठीक है तो मैं तेरी
तनख्वाह से पैसे काट लूँगा पंडित जी बोले,मीना सिर झुकाये
आखों मे आँसू लिये,बच्चे को गोदी मे उठा कर कोठी से बाहर
निकल आती है,और मन ही मन सोचती है कि "भगवान् कहाँ से
लाऊँ" तभी उसकी दृष्टि पास की ही सुनार की दूकान पर पड़ती है और उसके कदम
अनायास ही दूकान की ओर बढ़ने लगते हैँ वह वहां पर अपना मंगल सूत्र गिरवी रख पूजन
भण्डार की ओर रूख करती है भगवान् की मिट्टी की मूर्ति ख़ुशी-ख़ुशी खरीद कर अपने घर
की ओर प्रस्थान करती है,
चेहरे मे आस का भाव लिए -एक तरफ भूख से
तड़पता बच्चा और दूसरे हाथ कृष्ण जी की मूर्ति को लेकर अपने घर उनका प्रवेश कराती
है, एक नई आशा की किरण और उमंग लिए कि अब तो भाव सागर से
नैय्या पार लग ही जायेगी और इस "अन्धविश्वाश" के साथ मूर्ति की स्थापना
कर अपने दैनिक कार्यों मे व्यस्त हो जाती है।
(पंकज जोशी )
सर्वाधिकार सुरक्षित ।
२८/१२/२०१४
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